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ओशो साहित्य >> भीतर का दीया

भीतर का दीया

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3640
आईएसबीएन :81-288-0709-9

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ओशो का प्रवचन संकलन

Bhitar Ka Diya a hindi book by Osho - भीतर का दीया -ओशो

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भीतर का दीया

जब तुम होशपूर्वक कुछ करते हो, तब तुम्हारी चमक और दीप्ति अलग होती है। ध्यान रखना, जब तुम्हारे भीतर का दीया जला होता है तो तुम्हारे चारों तरफ एक आभा का मंडल होता है। जिसके पास आंख है, वह तत्काल देख लेगा कि तुम एक चमक और एक ज्योति से भरे होते हो। जब तुम होशपूवर्क कुछ काम करते हो, तो तुम्हारे भीतर का दीया जल रहा है। और जब तुम बेहोशी में कुछ काम करते हो, तब तुम ऐसे, जैसे सम्मोहित, नींद में, या शराब पीये चल रहे हो—कुछ कर लेते हो।
मूर्च्छा से जो किया जाता है, वह भटकता है। वह बुरी दशा है। अमूर्च्छित जो किया जाता है, वह पहुँचता है। वह ठीक दशा है। कृत्य एक से हों भला, मूर्च्छा-अमूर्च्छा निर्णायक हैं। महावीर से कोई पूछता है साधु की परिभाषा, तो महावीर ने कहा, ‘सुता अमुनि’। जो सोया-सोया चल रहा है—‘सुता’, वह असाधु। जो जागा जागा जी रहा है, असुता-वह साधु। यही तो कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब और सब सो जाते हैं, तब भी योगी जागता है। जहां सब मूर्च्छा से भरे हैं। वहाँ भी योगी होशपूर्ण है।
ओशो

1

प्रेम गली अति सांकरी,

जा में दो न समाहिं


भगवान !
रूमी ने एक गीत में कहा है :
प्रेयसी के द्वार पर किसी ने दस्तक दी।
भीतर से आवाज आई, ‘कौन है ?’
जो द्वार के बाहर खड़ा था उसने कहा, ‘‘मैं हूँ।’
प्रत्युत्तर में उसे सुनाई पड़ा, ‘यह घर मैं और तू, दो को नहीं संभाल सकता।’
और बंद-द्वार बंद ही रहा।
प्रेमी तब जंगल चला गया।
वहां उसने तप किया, उपवास किये, प्रार्थनाएं कीं।
बहुत चांदो के बाद वह लौटा, और दुबारा उसने वे ही द्वार खटखटाये। और फिर वही प्रश्न : ‘बाहर कौन है ?’
पर इस बार द्वार खुल गये। क्योंकि उसका उत्तर दूसरा था। उसने कहा था, ‘तू ही है।’
भगवान ! मेवलाना रूमी के इस गीत में निहित संदेश को समझने की कृपा करें।

अहंकार जीवन की मूलभूत समस्या है और प्रेम मूलभूत समाधान भी।
इस बोधकथा में दोनों हैं; मनुष्य की समस्या भी और मनुष्य के लिए समाधान भी।
पहले अहंकार को समझें। बच्चा पैदा होता है तब कोई अहंकार नहीं होता। उसे कोई बोध नहीं होता ‘मैं’ का; बोध होता है अस्तित्व का, बोध होता है, ‘हूं’ का ‘मैं हूं’ ऐसा बोध नहीं होता, सिर्फ हूं ऐसा बोध होता है। ‘मैं’ लेकर कोई पैदा नहीं होता। लेकिन ‘मैं’ जीवन की जरूरत है, बिना ‘मैं’ के बच्चा बढ़ न पायेगा।
जरूरत ऐसी ही है, जैसे बीज के चारों तरफ एक सख्त खोल की जरूरत होती है। खोल बीज नहीं है, बीज तो भीतर छिपा है। लेकिन एक खोल चाहिए जो उसकी रक्षा करे, अन्यथा बीज ठीक भूमि पाने के पहले ही नष्ट हो जायेगा, मर जायेगा। तो चारों तरफ एक सख्त खोल उसकी रक्षा करती है। रक्षक, भक्षक भी हो सकते हैं, जो खोल रक्षा करती है, वही खोल किसी दिन बाधा भी बन सकती है। जब हम बीज को बोयें और खोल इनकार कर दे कि अब मैं टूटूंगी नहीं, मैंने ही तुझे इतने दिनों तक बचाया है, अब तू मुझे छोड़ता है ? तो खोल, जो कि जीवन की रक्षा करती है, वही जीवन की हत्या हो जायेगी। अंकुर पैदा न हो सकेगा; अंकुर पैदा तभी होगा जब खोल टूटे।

इसलिए इस विरोधाभास को ठीक से समझ लें। खोल बचाती है, खोल मार सकती है। खोल बचाती है, जब तक अंकुर को ठीक भूमि नहीं मिली। ठीक भूमि मिलते ही खोल को टूट जाना चाहिए, तो उसका काम पूरा हुआ।
मनुष्य का अहंकार अनिवार्य है। बच्चे को अगर खयाल न हो कि ‘मैं हूं’, आग से कैसे बचेगा ? बाहर वर्षा होती होगी, कैसे भीतर आयेगा ? उसे पता ही न चलेगा कि मैं भीग रहा हूँ। ‘हूं’ को तो कुछ भी भेद पता न चलेगा वर्षा में और स्वयं में। ‘हूं’ को तो कुछ भी भेद पता नहीं चलेगा आग में और स्वयं में। ‘हूं’ की तो कोई सीमा ही नहीं, ‘हूं’ तो ब्रह्म स्वभाव है। वह असीम है। खोल सीमा बनाती है। बच्चे को पता चलना चाहिए मैं जल रहा हूं, हाथ हटा लूं अन्यथा मृत्यु हो जायेगी।
प्रत्येक बच्चे को समाज अहंकार देता है। हमें सिखाना पड़ता है तुम हो। तुम पृथक हो। हमें सिखाना पड़ता है कि तुम अपने पैरों खड़े हो। हमें सिखाना पड़ता है, सहारे मत लो। बच्चा उसी दिन युवा हो जाता है, प्रौढ़ हो जाता है, जिस दिन वह अपने पैर खड़ा हो गया; अर्थ है—जिस दिन उसने अपने अहंकार को बना लिया शिक्षा से, संस्कार से, परीक्षाओं में प्रतिस्पर्धा से, जीत से, सफलता से। हम उसके अहंकार को भरते हैं ताकि अहंकार उसे बचाये। उस दिन तक, जिस दिन परमात्मा की भूमि मिलेगी प्रेम घटेगा और खोल टूटेगी और बच्चा पुनः विराट के साथ एक हो जायेगा।

खतरा तब शुरू होता है जब यह खोल इतनी मजबूत हो जाती है—और इस खोल को हम अपना रक्षक न बना कर अपनी आत्मा समझ लेते हैं। इस खोल को अपना कवच न बनाकर अपना प्राण समझ लेते हैं, फिर हम इसे टूटने ही नहीं देते; फिर हम इसे बचाते हैं। जो हमें बचाता है, उसे हम बचाने में लग जाते हैं, वहीं भूल हो जाती है। अहंकार तुम्हें बचाये तब तक ठीक है। तुम अहंकार को बचाने लगो बस, उसी दिन भूल हो गई। अब अहंकार मूल्यवान हो गया, तुम खोल हो गये। जो मूलभूत है, वह गौण हो गया; जो गौण है, वह मूलभूत हो गया। वहीं भूल शुरू हो जाती है और तब जीवन में दुर्घटनायें होने लगती हैं।

क्योंकि अगर ‘मैं’, अहंकार इतना मजबूत हो जाये कि तुम उसे छोड़ ही न पाओ, तो तुम प्रेम में सफल न हो पाओगे। परमात्मा के प्रेम को तो छोड़ दो फिलहाल साधारण जीवन के प्रेम में भी सफल न हो पाओगे। क्योंकि वहां भी क्षण भर को ‘मैं’ को छोड़ना पड़ेगा। तुम एक स्त्री को भी प्रेम न कर पाओगे। एक पुरुष को भी प्रेम न कर पाओगे, एक मित्र को भी प्रेम न कर पाओगे। क्योंकि प्रेम तो वही द्वार खोलता है जहां तुम्हारा ‘मैं’ नहीं। तुमने अगर कहा कि ‘मैं हूं’ तो प्रेम द्वार बंद कर लेता है। प्रेम का अर्थ ही है तुम दूसरे को मिलने को राजी हो, दूसरे में पिघलने को राजी हो, दूसरे को अपने में लीन हो जाने के लिए आमंत्रण, प्रेम है। वहां सीमा हटा लेनी चाहिए और ‘मैं’ सीमा बनाता है।

इसलिए बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर जो प्रेम में सफल हो पाते हैं; वे कहते जरूर हैं ! पति, पत्नी से कहता है, ‘मैं तुझे प्रेम करता हूं’; पत्नी, पति को कहती है—हजारों बार दुहराते हैं, लेकिन वह दुहराना भी सिर्फ इसी बात की खबर है कि प्रेम है नहीं; अन्यथा दुहराने की कोई जरूरत न थी। हम दुहराते उन्हीं बातों को हैं। जिन पर हमें शक है। और हम हजार तरह से सिद्ध भी उन्हीं बातों को करते हैं, जिन्हें हम भीतर गहरे में जानते हैं कि वे हैं नहीं।

तो पति गहने लायेगा, आभूषण लायेगा, हीरे-जवाहरात भेंट करेगा, लेकिन यह सब कचरा है। क्योंकि असली हीरा वह भेंट नहीं कर पाया, वह असली हीरा था प्रेम का और उस असली हीरे की जगह वह कितने ही हीरे और कोहिनूर ले आये तो भी पूर्ति न होगी। पत्नी कितने ही पैर दबाए, कितना ही अच्छा भोजन बनाये, कितनी ही सेवा करे लेकिन अगर हृदय का दान न हुआ, अगर वह समर्पित न हुई, अगर वह ऐसी भूल न गई जैसे बूंद सागर में खो जाती है, ऐसा न घटा जब तक पति परमात्मा हो जाये और वह उसमें लीन हो जाए,

तब तक—तब तक कुछ भी साथ न देगा। तब तक दोनों हाथ खाली-खाली रहेंगे। और ध्यान रहे, खाली बर्तन बड़ी आवाज करते हैं, और खाली बर्तन इकट्ठे हों तो बड़ा कोलाहल होता है; भरा बर्तन चुप हो जाता है। खाली बर्तन कोलाहल करता है। आधा भरा, बड़ा उपद्रव मचाता है।
तुम्हारे जीवन की कलह, सतत जो कलह है—और प्रेमियों की कलह से ज्यादा और कोई कलह दिखाई नहीं पड़ती दुनिया में। वह कलह इसी बात की खबर है कि बर्तन खाली रह गये। तुमने हजार उपाय किए हैं, लेकिन सब उपाय व्यर्थ गये। क्योंकि एक चीज से तुम डरे हुए हो कि कहीं ‘मैं’ को खोना न पड़े ! इसलिए लोगों ने प्रेम के दरवाजे ही बंद कर लिए हैं; लोग विवाह करते हैं, प्रेम नहीं।

फिर विवाह भी एक सब्स्टीट्यूट है, वह भी एक परिपूरक तरकीब है।
कुंडली मिलाते हैं, हृदय नहीं। मां-बाप तय करते हैं, खुद नहीं; परिवार, समाज, धन प्रतिष्ठा इन सबका हिसाब किया जाता है, लेकिन प्रेम का अंकुर फूटेगा या नहीं। इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। उसको हम आंख से ओझल ही रखते हैं, क्योंकि वह खतरनाक है। कौन जाने प्रेम हो सके; न हो सके। सौ में निन्यानबे लोगों के जीवन में तो हो ही नहीं पाता, इसलिए विवाह उचित है।
विवाह बड़ी फीकी चीज है प्रेम के मुकाबले। खतरे कम हैं, क्योंकि बिलकुल नकली है।

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